Thursday, May 20, 2010

मातृत्व

मातृत्व


 रात अपने उतार पर थी
रेलवे स्टेशन कुछ अलसाया सा कुछ सो कुछ जाग रहा था
मानो बस अब सोने को है


कुछ लोग चहलकदमी कर रहे थे
शायद यात्रा पर हो

कुछ सो रहे थे
कुछ गायें भी स्टेशन पर बैठी
पागुर कर रही थी
गायों की उपस्थिति
मुझे एहसास करा गयी सर्वहारा की व्यथा
एक संयोग,
शहरी गायों और भिखारियों की व्यथा कुछ एक सी थी
आशियाने की अनुपलब्धता
एक मात्र और अन्तिम पड़ाव रेलवे स्टेशन!
उन गायों के साथ एक बछड़ा
बड़ा ही मुतमईन होकर पगुरा रहा था
एक ट्रेन खड़ी थी
दूसरी आने को थी
तभी बछड़ा सरपट भागा
कुछ लोगों से टकराया
फ़र्स पर रपटता फ़िर उठता
भागता, रूकने का नाम ही नही!
बस पूंछ उठाये भागा जा रहा था
मैं असंमजस में था
बछड़ा माँ जैसा करूण उच्चारण कर रहा था
अचानक ट्रेन की दूसरी तरफ़ से रम्भाने की आवाज आयी
करूण वेदना के स्वर थे
बिछड़ने के भाव थे
अब मुझे लगा कि बछड़े का मुतमईन होना
दरसल उसकी असफ़लता का परिचायक था
बछड़ा जिन गायों के बीच बैठा था
वे उसकी माँ नही थी, माँ जैसी थीं
या यूं कह ले समजाति का भाव
बछड़ा कुछ दूर ही भाग पाया था
कुछ कुत्तों ने उसे दौड़ाया
ये कुत्ते मानों रेलवे पुलिस के सिपाही हो
और भिखारियों को दौड़ा रहे हो
डण्डा भी मार रहे हो!
बछड़ा भयग्रस्त होकर भाग रहा था
और निकल गया स्टेशन से दूर
तभी पटरी  के उस तरफ़ से एक गाय की आवाज आई
वो रम्भा रही थी
मानो कुछ पाने को आतुर हो
वेदना भरी चीखे
करूण आवाजे
यह भाव विह्ललता
इधर-उधर दौड़ती
ट्रेन के डिब्बों के मध्य
से झांकती
और फ़िर चिल्लाती
मातृत्व का वह भाव
अतुलनीय था
जिसने समाप्त कर दी थी
सारी असमानतायें
मनुष्य और जानवर के मध्य की
जो मनुष्यता पर भी भारी था
बछड़ा दूर निकल गया था
दूसरी ट्रेन आ चुकी थी
यात्री ट्रेन पर सवार हो रहे थे
कुछ उतर कर स्टेशन से बाहर आ रहे थे
किन्तु गाय अभी भी रम्भा रही थी
पागलो सी दौड़ती
कभी इस ट्रेन के पार तो कभी उस ट्रेन......
ट्रेन जा चुकी थी
गाय भी थक चुकी थी’
पर असफ़ल प्रयासों का दौर जारी था
वेदना के स्वर तो धीमे हो चुके थे
वेदना की चीत्कार चरम पर थी
व्यथित भ्रमित माँ
पुत्र के विछोह में पागल
रम्भाती भागती और रूक जाती
इधर-उधर देखती और फ़िर रूक जाती
वही करूण चीत्कार
मैने बछड़े को खोजा लेकिन
रेलवे पुलिस के दर से शायद वह दूर चला गया था
मैं भी घर चला आया
रात का यह तीसरा पहर था
सूरज आने को था
सुबह जब यह मिलन हुआ होगा
तो कैसा होगा यह दृश्य
मातृत्व के उन भावों को
जिन्हे देखने से मैं वंचित रह गया था
माँ का वह प्रेम......
वह मनोरम दृष्य...........

कृष्ण कुमार मिश्र
(रचनाकाल- २१ जुलाई सन २००५)
यह कविता लखीमपुर  रेलवे स्टेशन की हसीन चाचा की दुकान पर बैठने वाले सभी मित्रों को समर्पित है, जो उन दिनों मेरी निशाचरी  गतिविधियों के सहभागी थे!

1 comment:

desert_photographer said...

wah bhai mishra ji
bahut sajeev chitran aur satik vyang on vayastha
i like it very much as a whole
because it filles all shades in human currant society
thanks for posting such a nice chhanika
thanks
rakesh sharma