Friday, February 7, 2014

हम इकबाल के अल्लाह को हर सुबह गाते है...



तुम मुझसे न सही मेरे अल्फाजों से राब्ता रखना।
आना अगर जानिब मेरी तो सिर्फ मुझसे ही वास्ता रखना। 



एहतराम है तो एतबार की गुंजाइश भी है 
मैं हूँ तो तेरे होने की ख्वाइश भी है .



जहां में इश्क है तो एहतराम लाजिम है 
वरना इंसान तो नफ़रत के सामान लिए बैठा है .



इनायत करे खुदा तो मयस्सर सारी कायनात होगी 
न जाने फिर भी क्यूं आदमी आदमी को सजदा करता है 



वो शिद्दत की बात करती थी और मुद्दत का भी जिक्र 
ये इश्क के लिए था या फकत जिस्म के लिए .



हम तो आये ही थे इस जहां में खुशियों को बाटनें.
खुद को पता नहीं था की एवज में गम से ही राब्ता होगा



लोग जुड़ते हैं जुदा होते हैं ये किस्से तमाम होते हैं.
जो बचता है दिलों में वो बस कुछ फूल तो कुछ काँटों के निशाँ होते है .



बिना जिस्म के रूह कुछ भी नहीं।
यही वो अक्स है जो रूह को झलकाता है। 



वो रहती है मेरे साथ हरदम मैं जहां भी रहता हूँ। 
लोग गफ़लत में होते है की मैं अकेला हूँ ।



बड़ी मुद्दतों से इंतज़ार था तेरा ..
खुद से खुद का करार था मेरा .




उसने भेजा था हमें धरती की तीमारदारी के लिए 
हमने उसे अलग किया और खुद ही मोहतरम बन बैठे.



अल्लाह की इस रहगुजर में न तू तू है न मैं मैं .
गुजरना है सही से तो तू खुद को खुदा की नजर कर दे 



मुल्क की मिल्कियत का ख़याल किसे है 
यहाँ हर शख्स खुद को बेंचता फिर खोजता भी खुद को है



तुम्हारा मुझ से जुदा होना बड़ा ही बेखयाली था 
जब अलग होते थे तो खुद को भूल जाते थे .



वो राहें वो जगहें वो मंजर तुझे तो याद ही होंगे 
जहां हम तुमको पाते थे तुम्ही को खो के आते थे.



तुझे तो याद ही होगा मेरा तुझ पे ही मिट जाना 
कभी खुश तो कभी बेजार हो जाना .



तेरे वास्ते हमने खुद को मिटा दिया 
एक तू थी जिसने मुझको भुला दिया ..कृष्ण (एक सस्ता शेर)



फकत कुछ रोज की ज़िंदगी है मयस्सर मेरे दोस्त 
तू सोचती है क्या मैं हमेशा तुझे एहतराम करूंगा .




तेरी सीरत पे कभी शक न हुआ मुझको तब तलक 
जब तक तूने मेरे इश्क की जगहंसाई न की .



याद है तुझको तेरे वो वादे जिनमें तूने मुझे सबकुछ कहा था 
अपना हिस्सा अपनी किस्मत व् रंगों में बहता खून कहा था 



हमने तो निभाये तेरे खून के रिश्तों को भी अपनों की तरह.
जब मुझको जरूरत थी तेरी तो तूने महज़ कुछ लफ्ज़ कहे 



दांव पर जान और इज्जत रखके हमने तो फकत तुमसे मोहब्बत की थी.
तुमने जो साथ दिया वो तो महज जिस्म से बावस्ता था .



मेरा तो बस गाँव नहर बाग़ से ताल्लुक था कृष्ण 
तुझसे मिले तो बाज़ार की कीमत समझी ...



तेरे जिस्म व् रूह दोनों से मोहब्बत थी हमें 
तूने तो सिर्फ जरूरत को तवज्जो दी थी ..



तेरे अंजुमन में आये हम बार बार।
ये अलग बात है की तूने हर बार तख्लिया कर ली। 


हम तो जीते है कमजोरी के अहद में आजकल,
उनका क्या जिनके पास कदमों तले खुद की जमीन नहीं 


तुर्क अफगानों अरब के उन लुटेरों की नस्ल कायम है इस मुल्क में 
आप खुश हो इसलिए की फिरंगी जा चुके है देश से.



बंदेमातरम कहना भी उनकों रास न आया 
हम इकबाल के अल्लाह को हर सुबह गाते है 


कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"


























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