Thursday, April 17, 2014

तब बुलाऊंगा तुम्हे..



पीड़ा की तमाम अनुभूतियों के मध्य
तुम्हारे मूक प्रेम की अनुभूति
कर देती है मन को उपवन
जो
मरूस्थल हो गया था
रेत पर प्रेम की नाव खींचते खींचते।
शब्द विह्वल थे!?
और ह्रदय अनुत्तरित!?
भाव घायल
और मन व्यथित
उस धीमी बयार के स्पर्श ने
जो तुम्हे छूकर आ रही थी पूर्व से
कंपित कर दिया देह को
जब रोम रोम दोलित हो रहा था
तब मन के मरूस्थल की रेत भी!
सरक रही थी आहिस्ता आहिस्ता
न जाने कब बारिश ने गीली कर दी
जमीन मन की।
पुष्प खिल गए
मेरे वजूद की जमीन पर
मानो प्रकट हुए हो...

इस मन की अविरल धारा ने
न जाने कब रुख बदल लिया

तुम्हे पता है
धरती के बदलते स्वरूप
बदलती वनस्पतियाँ
उपजते जीव जंतु और नष्ट होते
उस चक्र की निरंतर गति
और निश्चित आवेग जिसे
छेड़ देते है ये मानव
अपनी लालसा से
वासना से
कुछ ऐसा ही तो था
वो मन की धरती का चक्र
ठहर सा गया था
कारण गौड़ है
और विश्लेषण बेमानी
किन्तु अब कुछ उपज रहा है भीतर
आत्मा के आँगन में
तुम्हे खुशी होगी ये जानकार
विवेक भी अब उर्ध्व हो चुका है
और मन सिंचित
प्रेम की वनस्पति का अंकुरण भी
जब यह पेड़ बन जाएगा
तब बुलाऊंगा तुम्हे
इसके मीठे फल खिलाने के लिए
तुम आओगी .....

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"
(अनायास तो नहीं किन्तु अचानक उपजी कविता। नई कविता!)

Photo&Text Copyright: Krishna Kumar Mishra 2014 


Sunday, April 13, 2014

चलो छोड़ो अब इस झूठ के ताल्लुक को ही जारी रखिए...




इस मखमली गुलाब को जब हरियाली के दरीचे से झांकते देखा.
ला मुहाला उस नाज़मीन का चेहरा मेरे तसव्वुर में आ गया. 


हमारे नसीब में अश्कों की इक लम्बी दास्ताँ है।
आज सपने में मिले भी तो रोये बहुत थे हम।


इमारत बन नहीं पाई इबारत लिख गयी पहले।
यही बाकी निशाँ है आज कल के शाहजहाँओ का। 


जिन्हें मालूम नहीं रंगों की तासीर।
वे हाथों में कुछ बेजान से रंग लिए फिरते हैं।


रंग तो आफताब से है जिनकी एहसासों से शनासाई है।
संग ए दिल को खबर ही क्या की रंगों की बहार आई है।


तुम रोये तो मैं समंदर हो ग़या तुम हँसे तो मैं सीप बन गया।
फर्क अश्क ने बयाँ किया कभी खारी बूँद तो कभी गुहर हो गया।


बड़े फ़क्र से सब सालिम कहा करते थे मुझे।
लौटा जब तेरे पास से तो टुकड़ों में वजूद था मेरा।


ख़्वाबों का क्या वो तो कुछ भी देख लेते है।
कभी खुशी तो कभी दर्द के संग हो लेते है। 


जुदा होने की रस्मों के उस बेदर्द मंजर ने तड़पाया बहुत था।
आज सपने में मिले उससे तो खौफ ए जुदाई ने रुलाया बहुत था।


झूठ की आड़ में कितने गढ़े किस्से तुमने।
चलो छोड़ो अब इस झूठ के ताल्लुक को ही जारी रखिए।


नस्ल दागी है जहन पाक नहीं तो कोई बात नहीं।
सिलसिला फ़रेब ए मोहब्बत का तो ज़ारी रखिए।


कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"