Saturday, June 14, 2014

जहां प्रेम के फल नहीं लगते!...


एक रोज कहा था मैंने
तुम्हें याद है?
उस प्रेम के दरख़्त के बावत
जब उसके फल पक जाए
तब आना तुम!
खिलाऊंगा वो प्रेम के फल
उसकी सुगंध सुवासित कर देगी मन को
और स्वाद तृप्त कर देगा क्षुधा को
क्षुधा जो सदियों से है
तुम्हारे मन में
जिससे विरक्त नहीं हो सकती तुम
कोई न हो सका
क्षुधा न हो
तो मनुष्य भी न पके फल की तरह
परिपक्वता की डोर है ये
और पकना तो पड़ाव मात्र है जीवन में
जीवन के एक पड़ाव को हासिल कर लेने जैसा
रिश्ते फल जीव
सभी को पकना है
यह उर्ध्वता है
अधोगति नहीं
किन्तु पकना है तुम्हें
हमें भी
पहुंचना है
उस छोर के अंत में
जहां आगे कुछ नहीं
इस पूर्णता में
समय की मर्यादा भी है
जिसे मानती है प्रकृति
हमें भी मानना होगा
पकने में समय की मर्यादा
परिक्वता को पाने की समय की मर्यादा
मर्यादा खंडित होगी
तो सडन हो जायेगी इस परिपक्वता में
सड़ना तो अंत का संकेत है।
अंत तो अंतहीन है
जो पूर्णता को
छिन्न करते हुए
ले जाएगा अनंत में
जहां अणु विखंडित हो जाते है
विखर जाते है विभिन्न रूपों में
जल में
वायु में
अग्नि में....
जहां विभेद असंभव
जोड़ना अकल्पनीय
एक जीवन की कथा
मुकम्मल होकर
बिखरने तक
अंतहीन राहों पर
जहां प्रेम के फल नहीं लगते!...

कृष्ण कुमार मिश्र

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